Monday, December 26, 2011

घर के आले पर जुगनू

सूरज खोजे नया बसेरा, जुगनू घर के आले पर है
रोटी देने की ड्यूटी थी जिनकी नजर निवाले पर है
फिर से अब वो झुका रहे सर, घूम रहे हर घर पर
कुर्सी की चाहत छलके, नजरें सत्ता केप्याले पर हैं॥
---------------
हर पांच साल पर जनता जमान की जय हो
मंदी में डूबा देश सेंसेक्स के उड़ान की जय हो
साहब महंगाई दर धीरे धीरे पहुंच रही जीरो पर
सिफर महंगाई में भी जेब के कटान की जय हो॥
---------
नीला खेमा, केसरिया बाना, रंग तिरंगा सजा हुआ
सत्ता संग्राम में शेर भी उतरे कहीं सियार रंगा हुआ
कुछ हाथों में तलवार दुधारी, कुछ जीभें बनी कटारी
संभलो, फिर न शिकायत करना, अब भी दगा हुआ॥
---------------
कृपया किसी को न बहकाए
अपनी आदतों से बाज आएं
क्षेत्र-जाति वाद न सिखाएं
विकास के बूते लडऩे आएं
जन बल धीरे से जग रहा है
आयोग भी पेंच कस रहा है॥

Saturday, December 3, 2011

सियासत का चेहरा

सियासत का ये कौन सा चेहरा है
बागबां था अब तलक आज वो लुटेरा है
रोशन हैं महलों दुमहलों के परकोटे
कल्लू की गली में आज भी अंधेरा है।

जश्न-ओ-जाम में रंगीन हुई शाम है
सफेद लिबास में नंगई खुले आम है
चुपचाप सो गए दिन के स्याह चूल्हे
कल्लू के घर में फांके सुबहो शाम है
खुशी के रंग कैद कर हाथ बांधे बैठा है
आज बेईमान हुआ कौन ये चितेरा है।

बेफिक्र सा हुस्न ले साकिया छेड़ रही
लाल परी होंठ से होंठ ले खेल रही
खून के रंग, बू कौन यहां देख रहा
भुने हुए गोश्त की महक बड़ी तेज रही
सौदा हलाल का कल्लू रहा खाली हाथ
मंत्री आवास या बेईमानों का बसेरा है।

विलायती बिस्कुटों पर कुत्ते फिर लड़ गए
मालिकों के सामने हक पर अपने अड़ गए
काट काट नोंच खा लहूलुहान हो गए
बची हुई हड्डियों को चूस कर सो गए
कल्लू ये पूछ रहा कौन सा ये लोकतंत्र
कैसे ये रात ढली कौन सा सबेरा है।

रोशन हैं महलों दुमहलों के परकोटे
कल्लू की गली में आज भी अंधेरा है।

Thursday, November 17, 2011

रोटी सा चांद

सांझ ढले मेरे अंगना एक चांद उतरता है
मुझसे रुठा रुठा बस यूं ही बातें करता है
गोबर लीपे आंगन में कोने एक चूल्हा है
जो तवे पर रोटी की शक्ल में ढलता है।
इस आंगन में एक हरियाली साल पुरानी है
झिलमिल तारों संग चमके ऐसी एक कहानी है
चूल्हे की आग के संग छिटकी हुई रात चांदनी
धीरे धीरे तवा चांद पर कोई दाग उभरता है।
इक लड़की चांद की ये परिभाषा गढ़ जाती है
दुनियाबी बातें, धीरे धीरे मुझको समझाती है
चांद नहीं रोटी चमके भूखे पेट केआंगन में
रात की छत पे उतरा चांद सबको ही छलता है।
वो लड़की मुझको कुछ और भी याद दिलाती है
कहती थी, भूखे पेट किसी को नींद कहां आती है
रोटी के चंदा से कर दो दो हाथ उबर जाना फिर
तब गढऩा चांद की बातें देखो कितना अच्छा लगता है। 

आसमानी शर्ट....

मेरी उससे बोलचाल बंद है
आज कोई और आसमानी शर्ट में है क्योंकि
उसे पसंद है गहराता आसमान, उस पर टिमटिमाते सितारे
और वह चांद जिससे वह रोज बात करता है
आप जिस नंबर को डायल कर रहे हैं, वह अभी व्यस्त है
की आवाज अब भी आती है उसके फोन से
लेकिन इन वेटिंग मैं हूं, केवल यही सुनने के लिए
उसकी नजरें अब भी उठतीं हैं देखने केलिए
लेकिन मुझे नहीं किसी और को, जो आसमानी शर्ट पहनता है
हां, अब उसका मुझे कनखियों से देखना बढ़ गया है
पहले की तरह ही लेकिन कनखियां पहले जैसी नहीं
हां, मैं भी नहींं पहनता अब आसमानी शर्ट जो उसे अच्छी लगती थी
लेकिन यह किसने कहा कि मैं उससे प्यार नहींं करता
उसे पता है मैं झूठ नहींं बोलता..
हां, अब वह मुझसे कुछ नहीं बोलती.....

गीत नया गा पाता हूं

जब मैं दर्द के साज सजाता हूं
तो ही गीत नया गा पाता हूं
अपने तीरों से घायल होता हूं
अपना लहू बहाता हूं, तो ही गीत नया गा पाता हूं..
नाखूनों से खुरची हैं मैंने मन की दीवारें
मौन हुआ हथियार मेरा, ये ही मेरे हत्यारे
चोटिल कदमों को जब बोझिल पा जाता हूं
तो ही गीत नया गा पाता हूं, तो ही गीत नया गा पाता हूं...
सांझ ढले दुबकेसूरज से दो-दो हाथ करूं मैं
मत डूबे, रात न हो, फिर फरियाद करूं मैं
अंधियारी रातों में जब यादों से घिर जाता हूं
तो ही गीत नया गा पाता हूं, तो ही गीत नया गा पाता हूं...

Monday, November 7, 2011

टुकड़े

मुद्दा यह नहीं कि मंजिल क्या है
सवाल यह है हम चले कितनी दूर
----------
खुद से मुकाबिल हुए तो टूट गए
मांगी पनाह थी, हिस्से गुनाह आया
----------
तेरे नाज हमने यूं ही नहीं उठाए हैं
तेरे साथ निगाहें हम पर भी होती हैं
--------
बृजेश


तपिश

ठंडे हाथों की तपिश अब तलक तारी हैं
कान के पीछे फूंकों की कुछ खुमारी है
नजर से नजर पढऩे का सिलसिला था जो
शुरू कब का हुआ और आज भी जारी है
ठुनकियों का जवाब कुछ चिकोटियां थीं
एक पल को लगा सारी कायनात हमारी है
सासों का सरगम स्पर्शों को खुद आतुर है
पास-पास हैं फिर भी दूर होने की तैयारी है

उंगलियां

मैं कैसे कह दूं अपनी उंगलियों से तू मत गा प्रेम गीत
जब यह कलम बनती हैं तो कमाल लिखती हैं
किसी की उंगलियां छू लें तो दिल का हाल लिखती हैं
कहीं आंखों पर ठहरती हैं तो उसके सवाल लिखती हैं
और अपने पर आ जाएं तो फिर बातें बेमिसाल लिखती हैं

टूटते तारों से मांगा था

प्रेम की चौपाई अब गजल होने लगी
जिक्र उनका क्या हुआ, आंखें सजल होने लगी
टूटते तारों से मांगा था भला मिलता भी क्या
गीत अपरिमित गा रही सांसे सिफर होने लगी।।

जरूरी है गांव हो

नजर आसमां पर जमीं पर पांव हो
धूप सा जज्बा हो पर दिल में छांव हो
टूटते घरों से बढ़ गई मकानों की दरयाफ्त
पर जिंदा रहने के लिए जरूरी है गांव हो
तुम्हारे हाथ हैं तैर कर पार कर लो दरिया
जो बेबस हैं उनके लिए जरूरी है नाव हो

दर्द का साज

जब मैं दर्द के साज सजाता हूं 
तो ही गीत नया गा पाता हूं
अपने तीरों से घायल होता हूं
अपना लहू बहाता हूं, तो ही गीत नया गा पाता हूं..
नाखूनों से खुरची हैं मैंने मन की दीवारें
मौन हुआ हथियार मेरा, ये ही मेरे हत्यारे
चोटिल कदमों को जब बोझिल पा जाता हूं
तो ही गीत नया गा पाता हूं, तो ही गीत नया गा पाता हूं...
सांझ ढले दुबके सूरज से दो-दो हाथ करूं मैं
मत डूबे, रात न हो, फिर फरियाद करूं मैं
अंधियारी रातों में जब यादों से घिर जाता हूं
तो ही गीत नया गा पाता हूं, तो ही गीत नया गा पाता हूं...

बुतशिकन

बुतशिकन कहलाने में जिन्हें मजा आए
वो आज फिर किसी का घर तोड़ आए
मासूम आंखों में बस खून का मंजर था
दरिंदे उसे लाश पर बिलखता छोड़ आए
उनकी आंखों में जगा है हैवानियत का अंघेरा
रात फिर किसी घर की रोशनी उठा लाए
खुदा से इश्क को कुछ यूं बे वास्ता कर दिया
खुदाई के नाम पर मजनूं को पत्थर मार आए 

काफिर

काफिर नहीं हो जाता सिर्फ बुतपरस्ती से कोई
वरना, मुसल्लम ईमान में इश्क भी अज़ाब होता
बुरे वक्त में भी कायम रहा अपनी जहीनियत पर
वरना जो मसाइल था उसमें मैं भी बेहिसाब होता
जानता हूं, मांगूगा तो खुदा सब दे देगा मुझे
मांगता नहीं कुछ वरना मैं भी बदमिजाज होता
मैं बेअदब नहीं, बेइंतिहाई बदगुमान दारोगा की थी
गरीब निकला, वरना मेरे जख्मों का भी हिसाब होता

Sunday, November 6, 2011

मासूम बेटी

बेलती थी रोटियां बेटियों के वास्ते
रोटियों केवास्ते बेटियां ही बिक गई
नर्म नर्म लोइयां, छुईमुई सी बेटियां
देहयष्टि खिल गई आंख उन पर गड़ गई।।
जल गई हैवान में देह की भट्टियां
हवस उठ खड़ा हुआ रेंग गई चीटियां
खेत में पड़ी मिली शव बनी बेटियां
मासूम सी जान बनी गोश्त की भट्टियां।।
तमाशबीन देख कर मुंह छुपा चले गए
अखबार में खबर छपी, फिर सभी भूल गए
हैवान से बड़ी हुई समाज की हैवानियत
चुभते सवाल में घिर गई बेटियां।।
सुन सका ना चीख वो न्याय का जो देवता
दिखा नहीं कि आंख पर बंधी रही पट्टियां
खेलता था बचपना आंगन औ चौबारे में
डूब गई किलकारियां रह गई बस सिसकियां।।
कौन है सवाल करे कौन है जवाब दे
हादसे तारीख में तब्दील हो के रह गए
रात फिर चीख उठी दर्द भरी खेत से
हैवान फिर उठा चला मासूम सी बेटियां।।


Saturday, November 5, 2011

वो अनजान हुआ

घर में खुशहाल था एक आंगन मेरे
कई हुए तो बियाबान सा लगता है
दीवारों पर उभर आईं हैं दरारें बहुत
अब ढही छत दिल हलाकान सा रहता है॥
मेरे घर में खुल गए हैं दरवाजे कई
हर एक पर शक दरबान सा रहता है
जरा सी आहट से चौंक उठता है मन
मुझमें डर जमे मेहमान सा रहता है॥
मेरा घर अब सुनसान सा लगता है
बदलते वक्त में मकान सा लगता है
थाली में कौर बांटता था जो कभी
चूल्हा बटा तो हर शख्स अनजान सा लगता है॥

बेबसी

खुशियों की किलकारी गूंजी, सबने उसको दुलराया
मां होने का सुख पाकर आंचल में दूध उतर आया
पर एक परत दंश की थी, चुपके से आकर पसर गई
मासूम वो घंटों नंगा था, जो अभी अभी दुनिया में आया

७ अरब होने में भागीदारी करने वाले आगरा के बच्चे के लिए
जिसे १२ घंटे तक कपडे भी नसीब न हुए

सियासत

ये कौन है सियासती ये किसकी करामात है
बुझा बुझा है आसमां, सहमी हुई सी रात है
कौन घोल गया भला फिजा में रंग जहर भरा
चाँद हुआ मलिन मलिन कहीं तो कोई बात है

 

Tuesday, May 10, 2011

जिबह ज़मीर की सरगोशियाँ

लहू की सरगोशियाँ कान तक पहुंची आँख में खून उतर आया
चलो अच्छा है, मालूम तो चला शैतान अभी जिन्दा है
पर ये पूरा सच नहीं है, उसमे कुछ इंसां सा बाकी है
सुना है वो अपनी गलती पर बेहद शर्मिंदा है,
दरअसल हर रोज़ जिबह होता है ज़मीर ज़रुरत के हक़ में
वो दिल से बहूत दूर है, बस पापी पेट का कारिन्दा है,
वो कैसे गायेगा इंसानियत के साज़, होगा इंसां सा-जिंदा 
दरअसल वो आज भी मुर्दों के शहर का बाशिंदा है.google

Wednesday, March 2, 2011

लिबास कि कीमत

न हद में रहें न बेहिसाब रहें
भले दिल कहे कि  हम शराब रहें
लगती है तो लगने दे कीमत लिबास कि
आदमी है कोशिश कर आदमियत लाजवाब रहे.

अंतिम यात्रा

कभी कभी कंधो की तलाश होती है
कभी कभी कन्धों पर लाश होती है
सांस साथ छोड़ दे सभी साथ होते हैं
तब कोई नहीं पूछता जब सांस होती हैं


Sunday, February 6, 2011

नूराकुश्ती

अपनी दुश्मनी के रंग कुछ ऐसे मिले हुए
कभी हम सांप बने तो कभी तुम नेवले हुए
दांत एक दूजे पर हम ज़रा सँभाल कर रखे
दोनों को पता है यह तेज गरल से भरे हुए.

राजनीति और नौकरशाही के गठजोड़ का यही असली रंग है. कष्ट यह है कि मीडिया भी इस नूराकुश्ती का लुत्फ़ लेते हुए अपना फायदा तलाश रही है.
बृजेश kumar दुबे

Friday, February 4, 2011

धूल का गुबार

दर्द को जुबा न मिली, बात कि न बात बनी
हकीकतें छिपी रही काफिला निकल गया
पैबंद से ढका रहा खामियों का सिलसिला
गाँव था जो धूल भरा धूल से अटा रहा


आगरा दौरे पर सीऍम  आयीं लेकिन ग्रामीणों का दर्द नहीं जाना...., कमियाँ वैसे ही रही, हकीकत सामने नहीं आ पाई. 

Monday, January 17, 2011

दुकान

दुकान पर हो बिकोगे एक दिन जरूर
किसने कहा बस सामान ही बिकता है
यह तो हुनर पर है कि मोल क्या लगा
कीमत अच्छी हो, इंसान भी बिकता है

चिता का साजो सामान है तो क्या
वह दुकानदार है अपना मुनाफा कमाएगा
हकीकत पर शर्मिंदा होने कि जरूरत नहीं
बाजार में झूठ का स्यापा भी मिल जायेगा.



बृजेश कुमार दुबे

Thursday, January 13, 2011

रोशनी के लिए

डाल दो मुझको मिटटी के दिए में
उम्र भर जलता रहूँगा.
दूंगा प्रकाश सुरभित सुंगधित मैं
गहन तिमिर हरता रहूँगा.
वेदना न होगी मुझे
यूं उम्र भर जलने की
प्रकाश के हेतुक स्वयं
अखंड ज्योति बन जलता रहूँगा.
या यज्ञ में तुम होम कर दो मुझे
आहुति की समिधा बनाकर
यज्ञ पूर्ण हो बलिदान का
पूर्णाहुति बन जलता रहूँगा.
या कर दो चिर समाधि में लीन मुझको
अनंत का एक कण बनाकर
पर गहन तिमिर हरने के हेतुक
पुनश्च प्रकाश बन जलता रहूँगा.

Tuesday, January 11, 2011

"नींव का पत्थर"

" जो जमीन में धंसा हुआ, वो नींव का पत्थर है,
इस पर दीवार खड़ी होती है तभी छत की बात करते हैं"

Monday, January 10, 2011

"फुहार"

जब आशंकाओं के बादल उमड़ घुमड़ रहे थे मन में
कुछ आशाएं कुछ संदेहों की सिरहन थी तन मन में
तब तक इक महीन सी रेखा खिंच गयी क्रंदन की
इक कोंपल फूटी छुईमुई सी सपनीले जीवन की
संदेहों के बादल छंट  रहे थे धीरे धीरे हौले हौले
मन दौड़ रहा था कब कैसे उस क्रंदन रेखा को छू लें
सृष्टि का था बोध यही हम, हम से वो
फिर मन ने धीरे से गाया जीवन का संगीत था जो.

फुहार के होने पर....
२७ जुलाई को....