Thursday, November 17, 2011

रोटी सा चांद

सांझ ढले मेरे अंगना एक चांद उतरता है
मुझसे रुठा रुठा बस यूं ही बातें करता है
गोबर लीपे आंगन में कोने एक चूल्हा है
जो तवे पर रोटी की शक्ल में ढलता है।
इस आंगन में एक हरियाली साल पुरानी है
झिलमिल तारों संग चमके ऐसी एक कहानी है
चूल्हे की आग के संग छिटकी हुई रात चांदनी
धीरे धीरे तवा चांद पर कोई दाग उभरता है।
इक लड़की चांद की ये परिभाषा गढ़ जाती है
दुनियाबी बातें, धीरे धीरे मुझको समझाती है
चांद नहीं रोटी चमके भूखे पेट केआंगन में
रात की छत पे उतरा चांद सबको ही छलता है।
वो लड़की मुझको कुछ और भी याद दिलाती है
कहती थी, भूखे पेट किसी को नींद कहां आती है
रोटी के चंदा से कर दो दो हाथ उबर जाना फिर
तब गढऩा चांद की बातें देखो कितना अच्छा लगता है। 

आसमानी शर्ट....

मेरी उससे बोलचाल बंद है
आज कोई और आसमानी शर्ट में है क्योंकि
उसे पसंद है गहराता आसमान, उस पर टिमटिमाते सितारे
और वह चांद जिससे वह रोज बात करता है
आप जिस नंबर को डायल कर रहे हैं, वह अभी व्यस्त है
की आवाज अब भी आती है उसके फोन से
लेकिन इन वेटिंग मैं हूं, केवल यही सुनने के लिए
उसकी नजरें अब भी उठतीं हैं देखने केलिए
लेकिन मुझे नहीं किसी और को, जो आसमानी शर्ट पहनता है
हां, अब उसका मुझे कनखियों से देखना बढ़ गया है
पहले की तरह ही लेकिन कनखियां पहले जैसी नहीं
हां, मैं भी नहींं पहनता अब आसमानी शर्ट जो उसे अच्छी लगती थी
लेकिन यह किसने कहा कि मैं उससे प्यार नहींं करता
उसे पता है मैं झूठ नहींं बोलता..
हां, अब वह मुझसे कुछ नहीं बोलती.....

गीत नया गा पाता हूं

जब मैं दर्द के साज सजाता हूं
तो ही गीत नया गा पाता हूं
अपने तीरों से घायल होता हूं
अपना लहू बहाता हूं, तो ही गीत नया गा पाता हूं..
नाखूनों से खुरची हैं मैंने मन की दीवारें
मौन हुआ हथियार मेरा, ये ही मेरे हत्यारे
चोटिल कदमों को जब बोझिल पा जाता हूं
तो ही गीत नया गा पाता हूं, तो ही गीत नया गा पाता हूं...
सांझ ढले दुबकेसूरज से दो-दो हाथ करूं मैं
मत डूबे, रात न हो, फिर फरियाद करूं मैं
अंधियारी रातों में जब यादों से घिर जाता हूं
तो ही गीत नया गा पाता हूं, तो ही गीत नया गा पाता हूं...

Monday, November 7, 2011

टुकड़े

मुद्दा यह नहीं कि मंजिल क्या है
सवाल यह है हम चले कितनी दूर
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खुद से मुकाबिल हुए तो टूट गए
मांगी पनाह थी, हिस्से गुनाह आया
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तेरे नाज हमने यूं ही नहीं उठाए हैं
तेरे साथ निगाहें हम पर भी होती हैं
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बृजेश


तपिश

ठंडे हाथों की तपिश अब तलक तारी हैं
कान के पीछे फूंकों की कुछ खुमारी है
नजर से नजर पढऩे का सिलसिला था जो
शुरू कब का हुआ और आज भी जारी है
ठुनकियों का जवाब कुछ चिकोटियां थीं
एक पल को लगा सारी कायनात हमारी है
सासों का सरगम स्पर्शों को खुद आतुर है
पास-पास हैं फिर भी दूर होने की तैयारी है

उंगलियां

मैं कैसे कह दूं अपनी उंगलियों से तू मत गा प्रेम गीत
जब यह कलम बनती हैं तो कमाल लिखती हैं
किसी की उंगलियां छू लें तो दिल का हाल लिखती हैं
कहीं आंखों पर ठहरती हैं तो उसके सवाल लिखती हैं
और अपने पर आ जाएं तो फिर बातें बेमिसाल लिखती हैं

टूटते तारों से मांगा था

प्रेम की चौपाई अब गजल होने लगी
जिक्र उनका क्या हुआ, आंखें सजल होने लगी
टूटते तारों से मांगा था भला मिलता भी क्या
गीत अपरिमित गा रही सांसे सिफर होने लगी।।

जरूरी है गांव हो

नजर आसमां पर जमीं पर पांव हो
धूप सा जज्बा हो पर दिल में छांव हो
टूटते घरों से बढ़ गई मकानों की दरयाफ्त
पर जिंदा रहने के लिए जरूरी है गांव हो
तुम्हारे हाथ हैं तैर कर पार कर लो दरिया
जो बेबस हैं उनके लिए जरूरी है नाव हो

दर्द का साज

जब मैं दर्द के साज सजाता हूं 
तो ही गीत नया गा पाता हूं
अपने तीरों से घायल होता हूं
अपना लहू बहाता हूं, तो ही गीत नया गा पाता हूं..
नाखूनों से खुरची हैं मैंने मन की दीवारें
मौन हुआ हथियार मेरा, ये ही मेरे हत्यारे
चोटिल कदमों को जब बोझिल पा जाता हूं
तो ही गीत नया गा पाता हूं, तो ही गीत नया गा पाता हूं...
सांझ ढले दुबके सूरज से दो-दो हाथ करूं मैं
मत डूबे, रात न हो, फिर फरियाद करूं मैं
अंधियारी रातों में जब यादों से घिर जाता हूं
तो ही गीत नया गा पाता हूं, तो ही गीत नया गा पाता हूं...

बुतशिकन

बुतशिकन कहलाने में जिन्हें मजा आए
वो आज फिर किसी का घर तोड़ आए
मासूम आंखों में बस खून का मंजर था
दरिंदे उसे लाश पर बिलखता छोड़ आए
उनकी आंखों में जगा है हैवानियत का अंघेरा
रात फिर किसी घर की रोशनी उठा लाए
खुदा से इश्क को कुछ यूं बे वास्ता कर दिया
खुदाई के नाम पर मजनूं को पत्थर मार आए 

काफिर

काफिर नहीं हो जाता सिर्फ बुतपरस्ती से कोई
वरना, मुसल्लम ईमान में इश्क भी अज़ाब होता
बुरे वक्त में भी कायम रहा अपनी जहीनियत पर
वरना जो मसाइल था उसमें मैं भी बेहिसाब होता
जानता हूं, मांगूगा तो खुदा सब दे देगा मुझे
मांगता नहीं कुछ वरना मैं भी बदमिजाज होता
मैं बेअदब नहीं, बेइंतिहाई बदगुमान दारोगा की थी
गरीब निकला, वरना मेरे जख्मों का भी हिसाब होता

Sunday, November 6, 2011

मासूम बेटी

बेलती थी रोटियां बेटियों के वास्ते
रोटियों केवास्ते बेटियां ही बिक गई
नर्म नर्म लोइयां, छुईमुई सी बेटियां
देहयष्टि खिल गई आंख उन पर गड़ गई।।
जल गई हैवान में देह की भट्टियां
हवस उठ खड़ा हुआ रेंग गई चीटियां
खेत में पड़ी मिली शव बनी बेटियां
मासूम सी जान बनी गोश्त की भट्टियां।।
तमाशबीन देख कर मुंह छुपा चले गए
अखबार में खबर छपी, फिर सभी भूल गए
हैवान से बड़ी हुई समाज की हैवानियत
चुभते सवाल में घिर गई बेटियां।।
सुन सका ना चीख वो न्याय का जो देवता
दिखा नहीं कि आंख पर बंधी रही पट्टियां
खेलता था बचपना आंगन औ चौबारे में
डूब गई किलकारियां रह गई बस सिसकियां।।
कौन है सवाल करे कौन है जवाब दे
हादसे तारीख में तब्दील हो के रह गए
रात फिर चीख उठी दर्द भरी खेत से
हैवान फिर उठा चला मासूम सी बेटियां।।


Saturday, November 5, 2011

वो अनजान हुआ

घर में खुशहाल था एक आंगन मेरे
कई हुए तो बियाबान सा लगता है
दीवारों पर उभर आईं हैं दरारें बहुत
अब ढही छत दिल हलाकान सा रहता है॥
मेरे घर में खुल गए हैं दरवाजे कई
हर एक पर शक दरबान सा रहता है
जरा सी आहट से चौंक उठता है मन
मुझमें डर जमे मेहमान सा रहता है॥
मेरा घर अब सुनसान सा लगता है
बदलते वक्त में मकान सा लगता है
थाली में कौर बांटता था जो कभी
चूल्हा बटा तो हर शख्स अनजान सा लगता है॥

बेबसी

खुशियों की किलकारी गूंजी, सबने उसको दुलराया
मां होने का सुख पाकर आंचल में दूध उतर आया
पर एक परत दंश की थी, चुपके से आकर पसर गई
मासूम वो घंटों नंगा था, जो अभी अभी दुनिया में आया

७ अरब होने में भागीदारी करने वाले आगरा के बच्चे के लिए
जिसे १२ घंटे तक कपडे भी नसीब न हुए

सियासत

ये कौन है सियासती ये किसकी करामात है
बुझा बुझा है आसमां, सहमी हुई सी रात है
कौन घोल गया भला फिजा में रंग जहर भरा
चाँद हुआ मलिन मलिन कहीं तो कोई बात है