जब आशंकाओं के बादल उमड़ घुमड़ रहे थे मन में
कुछ आशाएं कुछ संदेहों की सिरहन थी तन मन में
तब तक इक महीन सी रेखा खिंच गयी क्रंदन की
इक कोंपल फूटी छुईमुई सी सपनीले जीवन की
संदेहों के बादल छंट रहे थे धीरे धीरे हौले हौले
मन दौड़ रहा था कब कैसे उस क्रंदन रेखा को छू लें
सृष्टि का था बोध यही हम, हम से वो
फिर मन ने धीरे से गाया जीवन का संगीत था जो.
फुहार के होने पर....
२७ जुलाई को....
mindblowing !! bravo!! some of the most beautifull lines i ever heared !!!
ReplyDeletethanks.
ReplyDelete"डाल दो मुझको मिटटी के दिए में
ReplyDeleteउम्र भर जलता रहूँगा" वेदना की इस से सुन्दर अभिव्यक्ति नहीं हो सकती..
सुन्दर लेखन के लिए बधाई दुबे जी..!
Dubey Congrats for an awsome poem. Keep up!
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